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जैन मुनि द्वारा अपनाई जाने वाली संल्लेखना पद्धति क्या है, जानिए

locationमेरठPublished: Sep 01, 2018 09:04:43 pm

Submitted by:

Rahul Chauhan

दिल्ली स्थित लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ के प्रोफेसर वीर सागर जैन के अनुसार संथारा या संल्लेखना की प्रक्रिया 12 साल तक भी चल सकती है।

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जैन मुनि द्वारा अपनाई जाने वाली संल्लेखना पद्धति क्या है, जानिए

मेरठ। क्रांतिकारी जैन मुनि तरूण सागर जी महाराज ने अपने गुरू के कहने पर सल्लेखना पूर्वक शनिवार को सुबह प्रातः 3:18 पर समाधि ले ली। उनका अंतिम संस्कार कार्यक्रम मुरादनगर के पास स्थिति तरूण सागरम तीर्थस्थल पर सम्पन्न हुआ। मुनि तरुण सागर महाराज ने जिन जैन मुनि की देखरेख में संल्लेखना लिया उनको गिरीनार से उनके गुरु मुनिश्री पुष्पदंत महाराज ने ही भेजा था।
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संल्लेखना के दौरान उनके साथ मुनि श्री सौभाग्यसागर जी महाराज, मुनिश्री अरूण सागर जी महाराज, उपाध्याय गुप्तिसागर जी महाराज, मुनिश्री अनुमान सागर जी महाराज , मुनिश्री शिवानंदसागर जी महाराज के अलावा अन्य कई आर्यिका गण भी उपस्थिति रहीं। जैन धर्म के अलावा अन्य समाज के लोगों को सल्लेखना के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। लेकिन इसको जैन धर्म में मृत्यु से पूर्व किया गया पवित्र कार्य माना जाता है।
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लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये संल्लेखना क्या है। इसकी जैन धर्म में क्या प्रासंगिकता है। आइये हम आपको संल्लेखना के बारे में बताते हैं। जैन धर्म के प्रवक्ता अरूण कुमार जैन के मुताबिक मृत्यु को समीप देखकर धीरे-धीरे खानपान त्याग देने को संथारा या सलेखना (मृत्यु तक उपवास) कहा जाता है। इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है। जो कि जैन समाज के मुनिश्री करते हैं। उन्होंने बताया कि राजस्थान हाईकोर्ट ने 2015 में इसे आत्महत्या जैसा बताते हुए इसे भारतीय दंड संहिता 306 और 309 के तहत दंडनीय बताया था।
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दिगंबर जैन परिषद ने हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीमकोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। दिल्ली स्थित लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ के प्रोफेसर वीर सागर जैन के अनुसार संथारा या संल्लेखना की प्रक्रिया 12 साल तक भी चल सकती है। यह जैन समाज की आस्था का विषय है, जिसे मोक्ष पाने का रास्ता माना जाता है। उन्होंने बताया कि यह प्रक्रिया जैन धर्म की आस्था से जुड़ी है। इसे बंद नहीं किया जा सकता। जैन धर्म में अंतिम समय में इस क्रिया को बहुत ही पवित्र माना गया है।
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