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अब नहीं सुनाई देती कांव-कांव, रासायनिक खाद ने बदल दी पक्षियों की दुनिया, कौए और कोयल हुए दुर्लभ… जानें बचाव के तरीके

CG News: कौवे, जो कभी हमारे घरों और खेतों में आम दृश्य थे, अब लगभग विलुप्त होने की कगार पर हैं। ये पंक्षी सिर्फ हमारे घरों की मुंडेर पर बैठकर अतिथि के आगमन की सूचना देने या पितरों के श्राद्ध में भाग लेने तक सीमित नहीं थे।

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नहीं सुनाई देती कांव-कांव (फोटो सोर्स- पत्रिका)

नहीं सुनाई देती कांव-कांव (फोटो सोर्स- पत्रिका)

CG News: कौवे, जो कभी हमारे घरों और खेतों में आम दृश्य थे, अब लगभग विलुप्त होने की कगार पर हैं। ये पंक्षी सिर्फ हमारे घरों की मुंडेर पर बैठकर अतिथि के आगमन की सूचना देने या पितरों के श्राद्ध में भाग लेने तक सीमित नहीं थे। इनकी उपस्थिति पारिस्थितिकी तंत्र और कृषि के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण थी।

कृषि में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का खतरा

आधुनिक कृषि तकनीक में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग तेजी से बढ़ा है। ये रासायनिक तत्व न केवल मिट्टी और पानी को प्रभावित करते हैं, बल्कि जीव-जंतु और पक्षियों के लिए भी जानलेवा साबित हो रहे हैं। खेतों से निकलने वाले अनाज में मौजूद कीटनाशक से चूहे मर जाते हैं। इसके बाद, जब कौवे इन मृत चूहों को खाते हैं, तो विष सीधे इनके शरीर में पहुंचता है, जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है। खेतों का पानी रासायनिक खादों के इस्तेमाल से जहरीला हो गया है, जिसे पीने से कौवे की प्रजनन क्षमता कम हो रही है। इस कारण इनकी प्रजाति लगभग विलुप्त होने की कगार पर आ गई है।

आवासीय, खुले मैदान, जंगलों में मिलने वाले कौए विलुप्त

लगभग एक से डेढ़ साल में किए गए एक शोध में सामने आया है कि आवासीय, खुले मैदान, जंगलों में मिलने वाले कौए विलुप्त हो गए हैं। इसका प्रमुख कारण खेतों में पेस्टीसाइड का अत्याधिक उपयोग है। इनके कारण खेतों में रहने वाले चूहे और मेंढक मर जाते हैं। इन्हें खाकर कौओं की भी मौत हो रही है। दूसरा बड़ा कारण पशुपालक अपने मवेशियों को डाइक्लोफेनाक इंजेक्शन लगवाते हैं। इंजेक्शन का रासायनिक पदार्थ जानवर के मांस में जमा हो जाता है। मृत मवेशी के डाइक्लोफेनाक युक्त शरीर का मांस खाने के कारण कौओं के अंडे का खोल कमजोर हो जाता है। इससे कौओं के बच्चों की अंडे में ही मौत हो रही है।

श्राद्ध में कौओं को तलाश रहे लोग

श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण श्राद्ध करने के बाद कौओं को भी प्रसाद खिलाने का विधान हैं। इन दिनों लोगों को कौए तलाश करने भटकना पड़ रहा है। श्राद्धपक्ष में हर्बल पार्क में कौओं को तलाश करने वाले पहुंच रहे हैं। पेड़ों के नीचे और खुली जगह में प्रसाद से भरा पात्र रख रहे हैं। यहां भी मुश्किल से कौए मिल रहे हैं।

कौआ, गिद्ध की संख्या धीरे-धीरे घट रही

गुरु घासीदास सेंट्रल यूनिवर्सिटी में जूलॉजी विभाग की एचओडी प्रो. सीमा राय का कहना है कि जब जब पौधों को कीटनाशकों से बचाया जाता है, तो ये रसायन मिट्टी और पानी में चले जाते हैं। छोटे जीव इन पौधों को खाते हैं और उनमें ये कीटनाशक जमा हो जाते हैं। बड़े जीव इन छोटे जीवों को खाते हैं, और यह रसायन बड़ी मात्रा में उनके शरीर में जमा हो जाता है। इसके कारण कौआ, गिद्ध की संख्या धीरे-धीरे घट रही है।

कोयल भी कम कर रही कौओं की संख्या

जानकारों के मुताबिक कोयल की बढ़ती संख्या के कारण भी कौओं की प्रजाति संकट में आ गई है। कोयल कौओं के घोंसले में अंडे देती है। अंडे देने से पहले वो घोंसले से कौआ के अंडे फेंक देती है। इस कारण इनकी संख्या नहीं बढ़ पा रही है।

पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर प्रभाव

कौवे केवल पर्यावरण का हिस्सा नहीं हैं; वे जैविक संतुलन बनाए रखने में भी मदद करते हैं। मृत जानवरों और कीड़ों को खाकर वे खेतों में जैविक सफाई का कार्य करते हैं। उनके न होने से कीटों की संख्या बढ़ सकती है और फसलें और भी अधिक प्रभावित हो सकती हैं।

समाधान और सुझाव

  1. रासायनिक खादों का नियंत्रित उपयोग: जैविक और प्राकृतिक उर्वरकों का विकल्प अपनाना चाहिए।
  2. कीटनाशकों के विकल्प: प्राकृतिक कीट नियंत्रण उपायों जैसे जैविक कीटनाशक या फसलों के सहायक पौधों का प्रयोग किया जा सकता है।
  3. जैव विविधता का संरक्षण: खेतों और आस-पास के क्षेत्रों में पक्षियों के लिए सुरक्षित आवास बनाए रखना आवश्यक है।
  4. सामाजिक जागरूकता: किसानों और आम लोगों को कौवों और अन्य पक्षियों के महत्व के प्रति जागरूक करना जरूरी है।