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छत्तीसगढ़ की पहली फिल्म ने रचा इतिहास, इंदिरा गांधी भी देखने को हुईं थी मजबूर, जानें कहानी…

First Movie of Chhattisgarh: छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री का इतिहास करीब छह दशकों पुराना है। इस भाषा में पहली फिल्म "कहि देबे संदेस" वर्ष 1965 में बनाई गई थी, जिसके निर्देशक थे मनु नायक।

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छत्तीसगढ़ की पहली फिल्म ने रचा इतिहास(photo-patrika)

छत्तीसगढ़ की पहली फिल्म ने रचा इतिहास(photo-patrika)

First Movie of Chhattisgarh: छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी फिल्म का बहुत नाम है, जिसे चोलीवूड (Chollywood) भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री का इतिहास करीब छह दशकों पुराना है। इस भाषा में पहली फिल्म "कहि देबे संदेस" वर्ष 1965 में बनाई गई थी, जिसके निर्देशक थे मनु नायक।

यह फिल्म छत्तीसगढ़ी सिनेमा की नींव मानी जाती है और इसे सामाजिक जागरूकता की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण माना गया, क्योंकि इसने छुआछूत, जातिवाद और सामाजिक भेदभाव जैसे मुद्दों को बड़ी संवेदनशीलता से उठाया। सीमित संसाधनों में बनी इस फिल्म ने छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति को पहली बार पर्दे पर सजीव किया।

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First Movie of Chhattisgarh: छत्तीसगढ़ी सिनेमा की ऐतिहासिक शुरुआत

छत्तीसगढ़ी भाषा की पहली फिल्म "कहि देबे संदेस" वर्ष 1965 में बनाई गई थी, जो छत्तीसगढ़ी सिनेमा की ऐतिहासिक शुरुआत मानी जाती है। इस फिल्म के निर्देशक और निर्माता दोनों ही मनु नायक थे, जिन्हें छत्तीसगढ़ी सिनेमा का पितामह भी कहा जाता है। मनु नायक ने उस दौर में, जब छत्तीसगढ़ एक अलग राज्य भी नहीं था, बेहद सीमित संसाधनों के साथ यह फिल्म बनाई थी।

फिल्म की कहानी सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित थी, जिसमें जातिवाद, छुआछूत और सामाजिक असमानता जैसे गंभीर विषयों को उठाया गया था। यह फिल्म छत्तीसगढ़ के ग्रामीण परिवेश और संस्कृति को दर्शाने वाली पहली कोशिश थी, जिसने क्षेत्रीय सिनेमा को एक नई दिशा दी।

मनु नायक की इस पहल से छत्तीसगढ़ी भाषा को पर्दे पर पहचान मिली और आगे चलकर यह सिनेमा एक सशक्त सांस्कृतिक माध्यम के रूप में विकसित हुआ। "कहि देबे संदेस" (First Movie of Chhattisgarh) न केवल एक फिल्म थी, बल्कि यह सामाजिक बदलाव का एक प्रतीक भी बनी, जिसने लोगों को अपनी बोली और संस्कृति पर गर्व करना सिखाया।

First Movie of Chhattisgarh: सामाजिक मुद्दों से जुड़ी कहानी...

इसके बाद "घर-द्वार", "मोर छईहां भुइयां", "भुलुंठा", "मया दे दे मयारू", और "हस झन पगली फंस जाबे" जैसी कई हिट फिल्मों ने इस क्षेत्रीय सिनेमा को आगे बढ़ाया। खास बात यह है कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों की विषयवस्तु आमतौर पर लोक जीवन, परंपराओं और सामाजिक मुद्दों से जुड़ी होती है, जो दर्शकों से सीधा जुड़ाव बनाती है।

अब जब राज्य सरकार ने फिल्म सिटी को मंजूरी दे दी है, तो यहां शूटिंग, एडिटिंग, पोस्ट प्रोडक्शन और अन्य फिल्म निर्माण से जुड़ी सुविधाएं विकसित होंगी। इससे स्थानीय कलाकारों और तकनीशियनों को बेहतर अवसर मिलेंगे और छत्तीसगढ़ की मनोरंजन इंडस्ट्री को एक नई दिशा मिलेगी।

संगीत के क्षेत्र में भी बेहद खास

छत्तीसगढ़ी सिनेमा की पहली फिल्म "कहि देबे संदेस" (1965) केवल सामाजिक संदेश ही नहीं बल्कि संगीत के क्षेत्र में भी बेहद खास थी, क्योंकि इस फिल्म में प्रसिद्ध पार्श्वगायक मोहम्मद रफी जैसे दिग्गज कलाकार ने भी अपनी आवाज दी थी। उस दौर में किसी क्षेत्रीय भाषा की फिल्म में रफी साहब का गाना एक बड़ी उपलब्धि माना जाता था। यह इस बात का प्रमाण है कि छत्तीसगढ़ी सिनेमा की शुरुआत ही गुणवत्ता और प्रभावशाली कलाकारों के साथ हुई थी।

रफी साहब का गीत न केवल फिल्म की लोकप्रियता का केंद्र बना, बल्कि इससे यह भी जाहिर हुआ कि छत्तीसगढ़ी भाषा और उसकी संस्कृति में इतनी गहराई और भावनात्मकता है कि वह देश के महानतम कलाकारों को भी आकर्षित कर सके। इसके साथ ही फिल्म में संगीतकार, लेखक और तकनीकी टीम ने भी सीमित संसाधनों में रहकर जो काम किया, वह आज भी प्रेरणा का स्रोत है।

मोहम्मद रफी जैसे कलाकार की मौजूदगी ने छत्तीसगढ़ी सिनेमा को राष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाने की दिशा में पहला मजबूत कदम साबित किया। यही वजह है कि "कहि देबे संदेस" को आज भी छत्तीसगढ़ी फिल्म इतिहास का मील का पत्थर माना जाता है।

विवादों के बीच इंदिरा गांधी ने देखी "कहि देबे संदेस"

उस दौर में फिल्म को लेकर भारी विवाद हुआ, ब्राह्मण और दलित की प्रेम कथा से लोग उद्वेलित हो गए और विरोध प्रदर्शन करने की धमकियां भी दी। इसी वजह से तत्कालीन मनोहर टॉकिज कें मालिक पं. शारदा चरण तिवारी ने फिल्म के पोस्टर उतरवा दिए और फिल्म का प्रदर्शन रोक दिया। आंदोलनकारी चाहते थे कि फिल्म को बैन कर दिया जाए।

“लेकिन दो प्रगतिशील कांग्रेस नेताओं से मदद मिली: मिनी माता और भूषण केयूर। दोनों ने फिल्म के पक्ष में बात की। मुझे बताया गया कि इंदिरा गांधी (तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री) ने भी फिल्म के कुछ हिस्से देखे और कहा कि फिल्म राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देती है।

मनु नायक का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया गया

सरकार ने फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया तो सिनेमा घरों के संचालक इसे प्रदर्शित करने के लिए टूट पड़े। फिल्म ने सफलता पूर्वक प्रदर्शन कर इतिहास रचने के साथ ही छत्तीसगढ़ी सिनेमा में मनु नायक का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया गया।

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कही देबे संदेश (संदेश देना) आज एक क्लासिक के रूप में माना जाता है। इस महीने की शुरुआत में इसे छत्तीसगढ़ी सिनेमा की स्वर्ण जयंती मनाने की प्रशंसा के बीच रायपुर में एक फिल्म समारोह में दिखाया गया था। फिल्म का प्रीमियर 16 अप्रैल, 1965 को दुर्ग और भाटापारा में हुआ था। विवाद के चलते इसे सितंबर में ही रायपुर में रिलीज किया गया था। मुंबई में रहने वाले नायक ने कहा, “यह राजकमल टॉकीज (अब राज) में आठ सप्ताह तक चला।”