
सृष्टि का श्रृंगार है कर्मशीलता
रतलाम। कर्मशील व्यक्ति ही कर्तव्य निष्ठ होता है। कर्तव्य निष्ठा व्यक्तित्व को महान बनाती है। कर्मशील ही स्वस्थ और प्रसन्न रहते है। इसलिए अपना कर्म करो, उसमें कोई कोताही मत करो। कर्म करना अपना अधिकार है। फल की चाह ना रखकर जो अपने कर्म में तल्लीन रहते है,वे उन्नति के शिखर पर पहुंच जाते है। कोरोना के इस संकटकाल में हर व्यक्ति को कर्मशील बनने का संकल्प करना चाहिए।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव प्रज्ञानिधि,परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी महाराज ने कही। धर्मानुरागियों को प्रसारित संदेश में आचार्यश्री ने कहा कि कर्मशील व्यक्ति के लिए कोई काम असंभव नहीं होता। हर काम संभव हो जाते है। फल की आकांक्षा कर्म करने में सबसे बडी बाधा बनती है। ऐसा व्यक्ति कर्म करने में तत्पर नहीं रहता। फल की तरफ बार-बार ध्यान देने के कारण उसमें कर्म करने का उत्साह नहीं रहता। कर्मशीलता आलस्य एवं प्रमाद की बेडी तोडती है। अन्यथा व्यक्ति आलस्य एवं प्रमाद को प्रश्रय देता है, तो सुख, सम्पदा और प्रगति से दूर होता जाता है। उन्हांेने कहा कि निष्क्रिय व्यक्ति किसी भी काम में सफल नहीं होता। वह अपनी असफलता का दोष दूसरों पर मढता है। वह कभी भाग्य का रोना रोता है, तो कभी निमित्तों को दोष देता है। इससे वह कायर, कमजोर और पुरूषार्थहीन होता जाता है।
कर्तव्य बोध की प्रेरणा देता
आचार्यश्री ने कहा कि कर्मशीलता वह पुरूषार्थ है, जो अधिकार तंत्र में उलझने नहीं देता और अधिकार की भावना समाप्त कर कर्तव्य बोध की प्रेरणा देता है। कर्मशील व्यक्ति आज में विश्वास रखता है, वह कल का भरोसा नहीं करता। कल आयेगा, पर हम रहेंगे ही यह जरूरी नहीं। हम रहे या ना रहे, हमे तो आज मिला है। इस आज को अगर सार्थक कर लेंगे,तो कल भी सुनहरा बन जाएगा। इस सोच के साथ ही कर्मशील व्यक्ति जीता है और अपने जीवन में सफलता की सीढियों पर आरोहण करता जाता है। कर्मशील व्यक्ति को कर्म करने में कभी क्लांति का अनुभव नहीं होता। निठल्ले बैठे रहना कर्मशील व्यक्ति की नियति नहीं होती। वह हर क्षण का सार्थक दिशा में उपयोग करता है। सृष्टि का श्रंृगार ही कर्मशीलता है। प्रमाद से अवसाद पैदा होता है और अवसाद ही व्यक्ति की शक्ति को पंगु बनाता है।
आनंद से वंचित
आचार्यश्री ने कहा कि सहिष्णुता, सापेक्षता और समन्वयशीलता रखकर हर व्यक्ति को कर्म करते रहना चाहिए। इससे सृजन को नई दृष्टि व नई दिशा प्राप्त होती है। जितना भी विकास हुआ है या होगा, उसमें कर्मशीलता का ही मुख्य प्रभाव होता है। केवल सोचने मात्र से विकास नहीं होता। सोच को जब तक कर्म नहीं मिलता, वह अधूरी और अपूर्ण ही रह जाती है। कर्म ही सोच को सार्थक और परिणामदायी बनाता है। सारे सुख और सारी समृद्धि का आधार व्यक्ति की कर्मशीलता है। निष्क्रिय व्यक्ति सुख-सम्पत्ति और आनंद से वंचित रहता है।
कर्मशीलता की सडक कभी सीधी सपाट नहीं होती
आचार्यश्री ने कहा कि पुण्य उसी का बढता है, जो कर्मशीलता को अपनाता है। हमारे हाथ में कर्म करना ही लिखा है, जो हमें प्रगति का रास्ता दिखाता है। कुछ अच्छा कर दिखाना जिसका ध्येय होता है, वह सुख-दुख की गणना में नहीं उलझता। वह तो यह मानकर ही चलता है कि कर्म करने वालों को अनेक आपत्तियों से ही गुजरना पडता है। कर्मशीलता की सडक कभी सीधी सपाट नहीं होती। उसमें कई आरोह-अवरोह आते है। हर कदम पर संभल कर चलना पडता है। संभलना ही साधना है। कर्मशील साधक संभलकर चलता है और अपनी मंजिल तक पहुंच कर ही विराम लेता है।
Published on:
05 Jun 2020 12:18 pm
बड़ी खबरें
View Allरतलाम
मध्य प्रदेश न्यूज़
ट्रेंडिंग
