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जुलाहे कबीर दास ने बड़ी शान्ति से कहा पांच रुपये की, लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग किये और दाम पूछा? कबीर दास अब भी शांत थे और बताया- ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े पे टुकड़े करता गया। अंत में बोला- अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए, यह टुकड़े मेरे किस काम के। संत कबीर ने शांत भाव से कहा- बेटे अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे। अब लडके को शर्म आई और कहने लगा- मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी का दाम दे देता हूं। संत जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूं? लडके का अभिमान जागा और वह कहने लगा कि, मैं बहुत अमीर आदमी हूं, तुम गरीब हो मैं रुपये दे दूंगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।
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संत कबीर ने मुस्कुराते हुए कहा- तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते, सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता और फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा। जुलाहे संत कबीर दास की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी।
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लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया, उसकी आंखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया। संत ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा- बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो है उस में मेरा काम चल जाता, पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ, उससे कोई भी लाभ नहीं होता, साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूंगा, पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहां से लाओगे तुम? तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती हैं।
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