बकिंघमशायर न्यू
यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. कायरन ओकीफ कहते हैं, “पैरासाइकोलॉजिस्ट मुख्य रूप से तीन प्रकार की रिसर्च में शामिल हैं। पहला तो अलग ही तरह का आभास होता है। इसमें टेलिपैथी, पहले से आभास होना या परोक्षदर्शन जैसी चीजें आती हैं। दूसरा है, दिमाग के जरिये कोई काम करना, जैसे बिना छुए चम्मच को मोड़ देना। तीसरा है, मृत्यु के बाद का संवाद, जैसे भूत प्रेत या आत्माओं से संवाद।”
वैज्ञानिको का कहना कि अजीबो-गरीब परिरस्थितियों में हमारी आंखें अनोखे ढंग से व्यवहार करने लगती हैं। कम रोशनी में आंखों की रेटीनल रॉड कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं और हल्का मुड़ा हुआ सा नजारा दिखाई देता हैं। वहींं इस बारे में डॉक्टर ओकीफ ने बताया , “आंख की पुतली को बेहद कोने में पहुंचाकर अगर हम आखिरी छोर से कोई मूवमेंट देखें तो वह बहुत साफ नहीं दिखता है। सिर्फ काला और सफेद ही नजर आता है। इसका मतलब साफ है कि रॉड कोशिकाएं रंग नहीं देख पाने के चलते दिमाग में आने वाली सूचना की कमी को पूरा करने की कोशिश करता है।
दिमाग उस सूचना को किसी तार्किक जानकारी में बदलने की कोशिश करता है। हमें ऐसा लगने लगता है जैसे हमने कुछ अलग ही चीज को देख लिया हो। जैसे की भूत” दिमाग का भ्रम है डर
भूत होने का अहसास होना या किसी अदृश्य चीज के हमारे आस-पास घूमना। इन सब चीजों से इंसान डर कर सन्न हो जाता है बेशक एेसा कुछ ही देर के लिए होता है। जिस दौरान इंसान के अंदर हलचल होने लगती है सांस और धड़कने भी तेजी से चलने लगती हैं। और शरीर बिल्कुल एेलर्ट हो जाता है। कुछ लोग ज्यादा डरते हैं तो कुछ कम। लेकिन वैज्ञानिकों ने एेसा न्यूरोट्रांसमीटरों के मौजूद होने पर बताया है। वैज्ञानिके के अनुसार जिस तरह हर इंसान में अलग-अलग तरह की भावनाएं होती हैं उसी प्रकार डर भी अलग-अलग तरह के होते हैं।
ओकीफ कहते हैं, “डरावने माहौल में कुछ लोगों के मस्तिष्क में डोपोमीन का रिसाव होने लगता है, इसके चलते उन्हें मजा आने लगता है, जबकि बाकी लोग बुरी तरह डर रहे होते हैं.” वैज्ञानिकों के मुताबिक बचपन में खराब अनुभवों का भी डर से सीधा संबंध है. अक्सर भूतिया कहानियां सुनने वालों या हॉरर फिल्में देखने वाले लोगों के जेहन में ऐसी यादें दिमाग में बस जाती हैं। जो हमें अक्सर याद भी रहती हैं।
वैज्ञानिकों के मुताबिक ज्यादातर हॉरर फिल्मों में ऐसी इमारतों को भूतिया बिल्डिंग के रूप में पेश किया गया। यह जानकारी हमारे मस्तिष्क में बैठ चुकी हैं। ऐसी इमारत देखते ही हमारा मस्तिष्क हॉरर फिल्मों की स्मृति सामने रख देता है। डर पैदा कर दिमाग ये चेतावनी देता है कि इस जगह खतरा है, जान बचाने के लिए यहां से दूर जाना चाहिए। इसके बाद धड़कन तेज हो जाती है और पूरा बदन तुरंत से भागने या किसी संकट का सामना करने के लिए तैयार हो जाता है। यह सब कुछ बहुत ही सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक स्तर पर होता है।