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अवैध खनन और कटाई से खतरे में उड़न गिलहरी सहित पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां

- 300 से ज्यादा पक्षी और 100 तरह की तितलियों के साथ दुर्लभ उडऩ गिलहरी का भी बसेरा- आदिवासियों और वन्यजीवों का गढ़ है किरर घाट, सोन और नर्मदा में सालभर मिलता है पानी

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शुभम बघेल

शहडोल. अवैध खनन और कटाई से वन्यजीवों और आदिवासियों का गढ़ किरर घाट संकट में है। यहां 300 से ज्यादा पक्षी और 100 तरह की तितलियों के साथ दुर्लभ उड़न गिलहरी का भी बसेरा भी है। इसके अलावा मध्यप्रदेश के संकटापन्न वृक्ष की भी तीन चौथाई प्रजातियां मौजूद हैं लेकिन पूरे इलाके में अंधाधुंध कटाई के साथ अवैध खनन चल रहा है। क्रशर के साथ कई बड़े माफिया पूरे क्षेत्र में सक्रिय हैं। लगातार अवैध खनन, अतिक्रमण और जंगलों की अवैध कटाई से यहां के वन्यजीवों के लिए बड़ा संकट खड़ा हो गया है। बक्सवाहा के जंगल के बाद अब किरर घाट के जंगलों को बचाने प्रकृति प्रेमी आगे आए हैं लेकिन प्रकृति और वन्यजीवों को बचाने कोई प्रशासनिक स्तर पर प्रभावी प्रयास नहीं किए जा रहे हैं।

100 से ज्यादा तितलियों की प्रजातियां, कई संकटापन्न वृक्ष भी मौजूद
किरर घाट और इससे लगे जंगलों में 300 से अधिक तरह के पक्षी रहते हैं। जिनमें सुरखाब, दूधराज, बुलालचश्म, धनेश, शमा, जंगली उल्लू मुख्य हैं। यहां तितली की भी 100 से अधिक प्रजातियां यहां पर रिकार्ड हैं। जिनमें ब्लू मॉरमॉन, कॉमन मैपविंग, बैंडेड पीकॉक, स्लेट फ्लैश, ओकब्ल्यू, क्रिमसन रोज दुर्लभ प्रजातियां शामिल है। मध्यप्रदेश के संकटापन्न वृक्ष प्रजातियों में लगभग तीन चौथाई प्रजातियां यहां मिलती हैं। जिनमें दहिमन, रोहिना, बीजा, कुल्लू, मेदा, तिनसा, धवा, पलाश, सोनपाठा, हल्दू, अचार, शल्यकर्णी, जंगली शीशम शामिल हैं।

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100 वर्ष पुराने जंगलों में रहने वाली उड़न गिलहरियों की बस्ती
अनूपपुर नेचर क्लब, द फारेस्ट प्रोटेक्टर ग्रुप के सर्वे में ये सामने आया है कि किरर और इससे सटे क्षेत्रों में दुर्लभ उड़न गिलहरी और बड़ी लाल गिलहरी का बसेरा है जो अमूमन वहीं अपना घर बनाती है जहां 100 वर्ष से ज्यादा पुराने और ऊंचे वृक्ष सघन रूप से लगे हों। इन गिलहरियों की बस्तियां बेहद कम बची हैं। इसके अलावा मकड़ी की एक खास प्रजाति यहां मिलती है। विशेषज्ञों की मानें तो इस बात का संकेत है कि जंगल का कुछ हिस्सा अभी भी अपने मूल स्वरूप में बचा हुआ है।

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कई नेशनल पार्क से जुड़ा कॉरिडोर, साल वृक्ष, बैगा व बाघ से समृद्ध
हरे-भरे जंगल और सालभर बहते हुए पानी की वजह से यहां बाघ, तेंदुए, भालू, लकड़बग्घा, चिंकारा, चीतल, भेड़की ,कृष्णमृग ट्री आसानी से मिलते रहे हैं। यही इलाका बांधवगढ़ से कान्हा, अचानकमार पार्क और घासीदास नेशनल पार्क के बीच का प्राकृतिक कॉरिडोर भी है। इसी तरह बैगा जनजाति मुख्य रूप से यहां निवास करती है। ये बैगा जनजाति को जानकर और प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर जीने वालों में गिना जाता है। ये माना जाता है कि जिस जंगल में साल वृक्ष,बाघ और बैगा रहते है, वह जंगल सबसे समृद्ध होता है। किरर क्षेत्र में ये तीनों मौजूद हैं।

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अरण्यक संस्कृति के पदचिन्ह, तपस्या के लिए आते थे संत
बांधवगढ़ से घुनघुटी और घुनघुटी से किरर और किरर से अमरकंटक स्थित मैकल पर्वत शृंखला में देश की सबसे पुरानी अरण्यक संस्कृति के पदचिन्ह मिलते हैं। सनातन काल से ऋषि मुनि तपस्या के लिए भी आते रहे हैं। इसके अलावा यहां कई प्राचीन उद्गम, कूप, झरने, कुएं और तालाब भी हैं। विशेषज्ञों की मानें तो सबसे सघन और सुंदर वन क्षेत्र हजारों सालों से यहां रहे हैं। यहां विंध्याचल और सतपुड़ा के बीच स्थित मैकल पर्वत है जो अपनी अनूठी जैव विविधता और अरण्यक संस्कृति की वजह से प्रसिद्ध है। यहां की प्राचीनतम गुफाओं में स्थित शैलचित्रों से मालूम होता है कि नर्मदा घाटी में मानव सभ्यता के जो सबसे पुराने पूर्वज रहे हैं, वे इस इलाके में भी रहते आए थे।

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