
दौसा। विश्व में आज भी हाथ से बुना हुआ एक मात्र कपड़ा अभी भी प्रचलित है तो वह है खादी। दौसा जिले की खादी का कपड़ा आज भी देश ही नहीं विदेशों में भी पहना जाता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने चरखे से कपड़ा बुनकर गरीबों की आर्थिक स्थिति सबल बनाने का सपना संजोया था, लेकिन अब खादी बुनकरों की स्थिति आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। सरकार बुनकरों को प्रोत्साहन देने की बजाय बड़ी कंपनियों व फैक्ट्रियों को बढ़ावा दे रही है।
जिले की दौसा खादी समिति का नाम पूरे देश में विख्यात है। यहां की खादी समिति के आलूदा गांव के बुनकरों का बुने कपड़े का तिरंगा झण्डा वर्ष 1947 में दिल्ली के लाल किले पर लहराया था। रेलवे के एक्सप्रेस गाडिय़ों के कोच में जो बैडशीट व परदे काम लिए जाते हैं, वह भी दौसा खादी समिति के छारेड़ा के बुनकरों द्वारा बुना कपड़ा है।
यही नहीं दौसा के बुनकर सूती खादी का कपड़ा, जिंस, पोलिस्टर व सिल्क आदि का कपड़ा तैयार करते हैं, लेकिन जब इनकी मजदूरी व सुविधाओं का सवाल आता है तो उनको आज भी कुछ नहीं मिल पाता है।
नहीं पड़ती मनरेगा जितनी भी दिहाड़ी
दौसा जिला मुख्यालय से 22 किलोमीटर दूर गांव थूमड़ी में बुनकरों अर्थात महावरों की ढाणी में जब राजस्थान पत्रिका की टीम पहुंची तो वहां हर घर में मशीनों की आवाज आ रही थी। करीब 70 परिवारों की बस्ती में सुबह उठते ही बच्चे, महिला एवं पुरुष कोई चरखे पर तो कोई मशीनों पर बैठकर सूत व कपड़ा बुनने में लग जाते हैं।
लेकिन जब यहां की महिला एवं पुरुषों से उनकी आमदनी की बात की हकीकत सामने आई। उनका कहना था कि वे दिनभर में डेढ़ सौ से दो सौ रुपए तक कमा लेते हैं। जबकि आज मजदूरी करने जाने वाले एक व्यक्ति को साढ़े 3 सौ से 4 सौ रुपए मिल रहे हैं। खास बात यह है कि इन बुनकरों को यह डेढ़ सौ से दो सौ रुपए की मजदूरी यहां एक जने की नहीं, बल्कि दिनभर काम करने के बाद पूरे परिवार को मिल पाती है।
नहीं मिलती है चिकित्सा सुविधा
कहने को तो खादी के कपड़े बुनाई का काम करने वाले परिवारों के बालकों को पढ़ाई के लिए विशेष छात्रवृत्ति व सभी परिजनों को चिकित्सा सुविधा मिलती है, लेकिन जब पत्रिका ने मशीन पर कपड़ा बुन रहे 80 वर्षीय बुजुर्ग मोहनलाल महावर से आपबीती पूछी तो बताया वह बचपन से ही खादी बुनाई का काम करता है। उन्होंने बताया कि उनकी आंख खराब हो गई थी, जब अस्पताल में आंखे बनवाई तो उनको दोनों आंखों के पांच-पांच हजार रुपए देने पड़े। ऐसा न केवल मोहनलाल का था, बल्कि सभी बुनकरों की यही स्थिति थी।
सडक़ का अभाव, नहीं मिले पक्के मकान
गांव के हालात ठीक नहीं है। मुख्य सडक़ से जोडऩे वाली सडक़ कच्ची है। आज भी कई लोगों के मकान कच्चे हैं। ताराचंद महावर ने बताया कि वे खादी का काम करते हैं, लेकिन आज तक भी उनको पक्का मकान नहीं मिल पाया है। गांव में जाने वाली सडक़ कच्ची है। बरसात के दिनों में रास्ते में पानी भरने से आवागमन बाधित होता है।
इलेक्ट्रॉनिक मशीन दे तो बने बात...
खादी का कपड़ा बुनने वाले अधिकांश परिवारों के पास आज भी हाथ की ही मशीन है। जबकि अब इलेक्ट्रॉनिक मशीनों का जमाना है। बुनकरों का कहना था कि यदि सरकार उनको अनुदान पर इलेक्ट्रॉनिक मशीनें उपलब्ध कराए तो उनकी काम करने की क्षमता व उत्पादन बढ़ जाए और मजदूरी भी अधिक मिले।
हाथ बंटाते हैं बालक
दसवीं कक्षा में पढऩे वाली रोशनी व रेणू महावर ने बताया कि दिनभर उनके घर में मशीन चलती है, वे पढ़ाई भी करती हैं। स्कूल से आने के बाद वे अपने घरवालों का हाथ बंटाने के लिए मशीन चलाती है। सरकार से उनको कोई सुविधा नहीं मिल पाती है।
सरकार बढ़ावा नहीं दे रही है
सरकार बुनकरों को यदि इलेक्ट्रॉनिक मशीनें दे तो मजदूरों को संबल मिले। अब तो खादी के कच्चे माल खरीदने एवं खादी से बुने कपड़े पर जीएसटी भी लगा दी है इससे खादी उद्योग काफी प्रभावित हो रहा है।
अनिल शर्मा, मंत्री खादी समिति दौसा
Updated on:
02 Oct 2017 09:54 am
Published on:
02 Oct 2017 07:29 am
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