‘स्वाभिमान की जंग में प्रताप ने दे डाली प्राणों की आहुति’
कोलकाताPublished: May 15, 2019 12:44:45 pm
अंतरराष्ट्रीय क्षत्रिय वीरांगना फाउंडेशन ने धूमधाम से मनाई महाराणा प्रताप की जयंती —-सोदपुर इकाई का विस्तार, नए पदाधिकारियों की घोषणा
‘स्वाभिमान की जंग में प्रताप ने दे डाली प्राणों की आहुति’
कोलकाता. अंतरराष्ट्रीय क्षत्रिय वीरांगना फाउंडेशन पश्चिम बंगाल की ओर से महाराणा प्रताप की जयंती धूमधाम से मनाई गई। फैंसी बाजार में गुरुवार शाम आयोजित समारोह में संगठन की प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने कहा कि महाराणा प्रताप ने स्वाभिमान की जंग में अपने प्राणों की आहुति दे डाली। प्रताप सदा स्वाभिमान से जीने वालों को प्रेरित करते रहेंगे। इस अवसर पर उन्होंने संगठन के विस्तार की चर्चा करते हुए सोदपुर अंचल के नए पदाधिकारियों के नामों की घोषणा की। उन्होंने कहा कि सोदपुर इकाई में रीना सिंह उपाध्यक्ष, रीता सिंह कोषाध्यक्ष, मंजू सिंह और सुलेखा सिंह को सचिव बनाया गया। इनके अलावा ज्योति सिंह, सुनीता सिंह, ललिता सिंह, आशा सिंह, सुजाता गुप्ता, अनिता साव, शकुंतला विशेष तौर पर उपस्थित थीं महाराणा प्रताप सिंह ( ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत 1597 तदनुसार 9 मई 1540–19 जनवरी 1597) उदयपुर, मेवाड में7 सिसोदिया आदिवासी भील राजवंश]] के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने कई सालों तक मुगल सम्राट अकबर के साथ संघर्ष किया। महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलों को कईं बार युद्ध में भी हराया। उनका जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जयवंत कँवर के घर हुआ था। लेखक विजय नाहर के अनुसार महाराणा प्रताप की जन्मकुंडली और उस काल की परिस्थितियां एवं भील समाज की परंपरा के आधार पर महाराणा प्रताप का जन्म उनके ननिहाल पाली मारवाड़ में हुआ। 1576 के हल्दीघाटी युद्ध में 20,000 भीलो को साथ लेकर राणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के 80,000 की सेना का सामना किया। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोडऩे के लिए बोला। शक्ति सिंह ने आपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17,000 लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिंताजनक होती चली गई । 25,000 आदिवासीयो को 12 साल तक चले उतना अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हुआ।