सन 1817… यही वो साल था जब पिंडारियों के आतंक से परेशान ईस्ट इंडिया कंपनी के गर्वनर जनरल मार्कीस ऑफ हेस्टिंग्स ने राजपूताने और मध्य भारत में उनके खात्मे का संयुक्त अभियान छेड़ा था। कर्नल जेम्स टॉड को अंग्रेजी फौज के समन्वय का काम सौंपा गया, लेकिन खुद उसके पास सैनिकों और असलहों की कमी थी।
32 सिपाहियों के साथ रांवठा में डेरा जमाए बैठे कर्नल टॉड को एक रोज पता चला कि कालीसिंध के किनारे डेढ़ हजार पिंडारियों ने डेरा डाला है, लेकिन वह चाहकर भी उनसे मुकाबला नहीं कर सकते। टॉड के गुप्तचरों ने सूचना दी कि कोटा के हाकिम फौज झाला जालिम सिंह भी इसी इलाके में डेरा डाले हुए हैं, तो उन्होंने उनसे सैन्य सहायता मांगी।
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सफल रही रणनीति
कोटा रियासत भी पिंडारियों से परेशान थी। 70 साल के झाला जालिम सिंह ने मौके का फायदा उठाया, टॉड को 250 सिपाही दे दिए। इनमें से 182 सिपाहियों के साथ उसने पिंडारियों पर धावा बोल दिया। लड़ाई में 150 से ज्यादा पिंडारी मारे गए और जो बचे वह भाग निकले। इसके बाद टॉड ने उनका डेरा लूट लिया। सैकड़ों की संख्या में मिले हाथी, घोड़े और ऊंट अपनी फौज में शामिल कर लिए और पैसा झाला को देना चाहा।
200 साल पहले बना पुल
झाला ने लूट की रकम लेने के बजाय चंद्रलोई नदी पर पुल बनाने को कहा तो टॉड तुरंत तैयार हो गए। अंग्रेज इंजीनियर्स ने सन 1818 में पत्थर और चूने का इस्तेमाल कर करीब 3 महीने की कोशिशों के बाद 800 मीटर लंबा पुल खड़ा कर दिया। करीब 35 मीटर चौड़े इस पुल के नीचे पानी की निकासी के लिए 20 फीट चौड़े 19 मोखे बनाए गए। पुल को मजबूती देने के लिए 2 मोखों के बीच 10 से 20 फीट की मोटाई वाले पत्थर के खंभे खड़े किए गए।