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MP Election 2018: मुश्किल में फंसे ये बड़े राजनैतिक दल, किसी को थोड़े लाभ की उम्मीद तो कोई जुटा डैमेज कंट्रोल में!

locationभोपालPublished: Oct 31, 2018 09:02:25 pm

जीत की कोशिशों के बीच अब राणनीति में करना होगा बदलाव!…

Indian Politics

MP Election: मुश्किल में फंसे ये बड़े राजनैतिक दल, किसी को थोड़े लाभ की उम्मीद तो कोई जुटा डैमेज कंट्रोल में!

भोपाल। मध्यप्रदेश में 15 वर्षों से सत्ता से दूर चल रही कांग्रेस इस बार पूरी ताकत के साथ चुनावी मैदान में है। वहीं, सत्ता पर काबिज भाजपा एक बार फिर जीत की कोशिश में जुटी है।

लेकिन इन सब के बीच अचानक कुछ ऐसी मुश्किलें आ खड़ी हुई हैं कि दोनों ही पार्टियों को अब उस समस्याओं से निपटने की ओर भी ध्यान देना पड़ रहा है।

दरअसल अचानक मध्यप्रदेश में नए दलों के मैदान में उतर जाने से बड़े दलों के लिए परेशानी खड़ी हो गई है। वहीं इसके चलते जहां कांग्रेस को सीटों में कुछ लाभ की ही आशा है, वहीं सूत्रों के मुताबिक भाजपा डैमेज कंट्रोल और नुकसान से बचने के लिए अपनी रणनीति के तहत दूसरे दलों को उलझाने में जुट गई है।

यह है मुद्दा (फिर गर्माने के कगार पर एट्रोसिटी एक्ट मुद्दा):
दरअसल केंद्र से एट्रोसिटी एक्ट के बाद से मध्यप्रदेश के अधिकांश हिस्सों में भाजपा के लिए दिक्कतें शुरू हो गईं। ऐसे में जयस व सपाक्स जैसे संगठनों के भी चुनाव में कूदने से परेशानी ने और ज्यादा बड़ा रुप ले लिया।

जानकार कहते हैं कि भाजपा अभी सब ठीक करने की कोशिश ही कर रही थी कि अचानक कम्प्यूटर बाबा भी विरोध में उतर आए और अब एट्रोसिटी एक्ट से नाराज पण्डोखर महाराज के भी आ जाने से पार्टी के अंदर काफी तनाव की स्थिति पैदा हो गई है। वहीं इनके बीच देवकी नंदन ठाकुर भी भाजपा के लिए काफी सरदर्द पैदा करते दिख रहे हैं।

वहीं राजनीति के जानकार डीके शर्मा का कहना है कि कांग्रेस के लिए भाजपा का ये नुकसान शुरू में तो फायदेमंद दिख रहा था, लेकिन अंत में इसकी आंच कांग्रेस पर भी आ जाने से कांग्रेस अब इससे बचते हुए केवल अपनी सीटों के फायदे पर अपने को फोकस करती दिख रही है।

जबकि भाजपा की बात करें तो एंटी इनकंबेंसी के साथ ही इन नई पार्टियों और कांग्रेस, बसपा व आप जैसी पार्टियों से एक साथ निपटने की तैयारियों में व्यस्त है।

राहुल पर केस ?:
शर्मा के अनुसार राहुल पर परिवाद दायर कराना भी भाजपा की एक रणनीति का हिस्सा हो सकता है। ताकि वे चुनाव को प्रभावित न कर सकें। या इसे केवल गीदड़ भभकी के रूप में भी कोर्ट के चक्कर लगाने के लिए राहुल को रोकने के तहत किया गया एक प्रयास माना जा सकता है।
उनके अनुसार राजनीति में लगातार आरोप प्रत्यारोपों का दौर जारी रहता ही है, ऐसे में एकाएक कोर्ट के गेट पर पहुंच जाना समझ के परे है। हां बुरा लग सकता है परिवार के उपर आरोपों के चलते लेकिन बीच चुनाव में किसी पर परिवाद दर्ज कराना राजनैतिक स्थिति में कहीं न कहीं रणनीति को ही दर्शाता है।
भाजपा को ये होता दिख रहा नुकसान…
भाजपा के लिए जयस और सपाक्स के बाद कम्प्यूटर बाबा का विरोध में आना परेशानी का विषय तो है ही लेकिन अब पंडोखर महाराज के एट्रोसिटी एक्ट के चलते नई राजनैतिक पार्टी बना कर चुनाव में उतरना, एक बार फिर कुछ हद तक शांत हो चुके एट्रोसिटी एक्ट मामले को पुन: भड़का देगा।
जिसका सीधा नुकसान भाजपा को पड़ सकता है। वहीं इससे भाजपा के लिए एक बार फिर समस्या खड़ी होने के साथ ही फिर डैमेज कंट्रोल पर ध्यान देना होगा, जिसके कारण वह अपना पूरा ध्यान केवल जीत की ओर नहीं लगा पाएगी।
पंडोखर सरकार:
दतिया जिले के पंडोखर धाम के गृहस्थ संत गुरुशरण शर्मा पंडोखर महाराज ने अपनी राजनीतिक पार्टी का गठन कर मप्र के विधानसभा चुनाव में 50 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर दिया है। मंगलवार को भोपाल में संत गुरुशरण शर्मा ने अपने नए राजनीतिक दल सांझी विरासत पार्टी की घोषणा की।

उन्होंने प्रदेश की शिवराज सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि प्रदेश में पाप चल रहे है, भ्रष्टाचार हो रहा है। साधु संतों का अपमान, माता बहनों की इज्जत से खिलवाड़, युवा शक्ति का अपमान, आरक्षण खत्म करने को मंच से माई के लाल बोला जा रहा है।

एक शासक द्वारा इस तरह समाज में भेद करना ठीक नहीं है। शासक का कर्तव्य है कि वह एक दृष्टि से समाज को देखे। मेरी तो मां है इसलिए मैं माई का लाल हूं। अब देखना है कि यह माई के लाल क्या करते हैं।

पंडोखर का ग्वालियर-चंबल संभाग में खासा असर
ज्ञात हो कि दतिया के पंडोखर सरकार धाम के संचालक गुरुशरण महाराज उर्फ पंडोखर सरकार का ग्वालियर-चंबल संभाग में खासा असर है।

उनसे मिलने और उनका आशीर्वाद लेने वालों में आम जनता के साथ-साथ कई बड़े नेता भी उनके दरबार में हाजिरी लगाते देखे गए हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि इनके द्वारा राजनैतिक पार्टी बना कर चुनाव में उतरने से कई पार्टियों पर इसका सीधा असर पड़ेगा।

ये है कांग्रेस की रणनीति:
मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ कांग्रेस पार्टी की ओर से कोई चुनावी चेहरा पेश नहीं किया जाना सूबे के प्रमुख विपक्षी दल की रणनीति का हिस्सा है।

यह बात मंगलवार को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कही, उन्होंने दावेदार के प्रश्न पर कहा कि हम मध्यप्रदेश की तरह राजस्थान में भी इसी रणनीति (विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित नहीं करना) का इस्तेमाल कर रहे हैं।

वहीं राहुल ने कहा, हमारे इन दोनों नेताओं में अपनी-अपनी खूबियां हैं। कमलनाथ के पास विस्तृत राजनीतिक अनुभव है, जबकि सिंधिया युवा और ऊर्जावान नेता हैं। मैं चुनावों में दोनों नेताओं की खूबियों का फायदा उठाना चाहता हूं।

उन्होंने कहा कि पिछले विधानसभा चुनावों में तीन से चार बार हारे नेताओं को भी कांग्रेस का चुनावी टिकट आम तौर पर नहीं मिलेगा।

आज, पहली सूची के नाम तय होंगे:
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव 2018 को लेकर कांग्रेस केंद्रीय चुनाव समिति की तीसरी बैठक बुधवार यानि आज होनी है। माना जा रहा है कि इसमें विधानसभा की सभी 230 सीटों के लिए उम्मीदवारों के नाम पर चर्चा हो सकती है, साथ ही पार्टी प्रत्याशियों की पहली सूची के नाम तय कर देगी।

इससे पहले मंगलवार रात को दिल्ली में कांग्रेस स्क्रीनिंग कमेटी की आखिरी बैठक हुई। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दो दिन के मालवा-निमाड़ दौरे के बाद प्रदेश के नेता मंगलवार की रात दिल्ली पहुंचे। रात में ही स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक हुई।

चर्चा है कि स्क्रीनिंग कमेटी ने बड़े शहरों और विवादों में फंसी विधानसभा सीटों समेत 51 सीटों पर बातचीत हुई। 179 विधानसभा सीटों पर प्रत्याशियों के नामों पर चर्चा की जा चुकी है। समिति ने दो बैठकों में 139 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम तय किए हैं।

ये है कांग्रेस की परेशानी…
जानकारों की माने तो कांग्रेस का ध्यान इस बार उन सीटों पर है जहां भाजपा और उसके बीच जीत का अंतर कम था। लेकिन कांग्रेस के साथ एक खास बात ये रही कि 2003 के मुकाबले 2013 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत तो पांच फीसदी वोट बढ़ा, लेकिन सीटें उस एवज में नहीं बढ़ी।

ऐसे में कई सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों ने ढाई हजार से भी काम वोटों के अंतर से जीत दर्ज की। ऐसे मे पार्टी इस बार जनता का गुस्सा भुनाकर जीत का सूखा खत्म करने की है।

ऐसे समझें वोट प्रतिशत की कहानी…
यदि गौर करें तो भाजपा और कांग्रेस में वोटों की संख्या के लिहाज से आंकड़े स्पष्ट कहते हैं कि ज्यादा अंतर नहीं रहा है।

1998 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने वोट प्रतिशत में महज दो फीसदी के अंतर से सरकार बनाई थी। इसके बाद 320 सीटों के लिए 1998 में हुए चुनाव में कांग्रेस ने 40.63 फीसदी वोट और 172 सीटें लेकर दूसरी बार सरकार बनाई थी। जबकि भाजपा का वोट प्रतिशत केवल 2 प्रतिशत कम रहा और सीटें केवल 119, इसके बाद 2003 में भाजपा ने 42.50 फीसदी वोट हासिल करके सरकार बनाई। जबकि कांग्रेस 31.59 फीसदी वोटों के साथ 38 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी।
वहीं 2008 में हुए चुनावों में भाजपा को वोट प्रतिशत में नुकसान हुआ और दोनों पार्टियों में वोट प्रतिशत महज 4.86 फीसदी का अंतर रहा। इसके ठीक अगले चुनाव यानि 2013 में भाजपा ने अपने वोट प्रतिशत के साथ-साथ सीटों की संख्या में भी बढ़ौतरी कर ली। इस दौरान भाजपा ने 44.87 फीसदी वोट के साथ 165 सीटें जीतीं। जबकि कांग्रेस 36.38 फीसदी के चलते केवल 58 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी।
कुल मिलाकर 2003 के चुनावों के बाद से कांग्रेस के वोट प्रतिशत में लगातार बढ़ौतरी तो हो रही है, लेकिन सीटों में वो फायदा नहीं हुआ। वहीं ऐसे में जानकारों का मानना है कि अब मजबूरी में भाजपा और कांग्रेस को या तो या तो इन नए दलों से समझौता करना होगा या इन्हें कैसे भी मनाकर अपने पाले में लाना होगा।
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