
तो क्या कांग्रेस अस्तित्व के संकट से गुजर रही है?
नई दिल्ली। लगातार दो लोकसभा चुनाव में हार से 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थिति एक डूबते हुए जहाज की तरह दिखाई देने लगी है। नौबत यहां तक पहुंच गई है कि उसके अपने नेता भी साथ छोड़ने लगे हैं। कांग्रेस इस स्थिति तक क्यों पहुंची, इस मुद्दे पर कोई भी नेता चिंतन करने को तैयार नहीं है, पर ऐसा क्यों? इसका कारण जानना बहुत जरूरी है।
तो क्या यह मान लिया जाए कि कांग्रेस अपने 135 वर्षों के इतिहास में पहली बार 'अस्तित्व संकट' दौर से गुजर रही है?
सचमुच कांग्रेस गंभीर संकट में है!
इस मुद्दे पर मूल कारणों के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता। लेकिन कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश के एक साक्षात्कार पर ध्यान दें उन बातों के संकेत मिलते हैं जो कांग्रेस की वर्तमान स्थिति को प्रतिबिंबित करता नजर आता है।
8 अगस्त, 2017 को एक समाचार एजेंसी को दिए साक्षात्कार में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने कहा था कि कांग्रेस पार्टी अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। अगर पुराने ढ़र्रे पर चलती रही तो भविष्य अंधकारमय है। वर्तमान संकट कांग्रेस के लिए केवल चुनावी संकट नहीं है। सचमुच में पार्टी गंभीर संकट में है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चुनौतियों का सामना करने के लिए कांग्रेस नेताओं द्वारा सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है। पुराने नारे काम नहीं करते, पुराना फार्मूला काम नहीं करता, पुराना मंत्र काम नहीं करता। भारत बदल गया है। कांग्रेस को उसी के अनुरूप बदलन होगा।
जरूरत पड़ने पर BJP से हाथ मिला लें मुसलमान
लोकसभा चुनाव 2019 का परिणाम आने से ठीक दो दिन पहले कर्नाटक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रोशन बेग ने कहा था कि मुसलमानों को जरूरत पड़ने पर भाजपा से हाथ मिलाना चाहिए। कांग्रेस ने राज्य में सिर्फ एक मुसलमान को टिकट दिया है। यदि एनडीए सरकार में लौटती है तो मैं विनम्रता से मुस्लिम भाइयों से अनुरोध करता हूं कि वे परिस्थिति से समझौता करें।
बयानों से स्थिति स्पष्ट
अलग-अलग समय पर दिए गए दोनों नेताओं के बयान से साफ है कि 135 साल पुरानी कांग्रेस गंभीर संकट में है। भाजपा में नरेंद्र मोदी जैसे नेता के राष्ट्रीय फलक पर उभरकर सामने आने से कांग्रेस भारतीय राजनीति में हाशिए पर चली गई है।
राहुल के रहते कोई और विकल्प नहीं
दरअसल, 2014 में कांग्रेस को 44 सीटें मिलीं थीं, तब राहुल गांधी 44 साल के होने वाले थे। पांच साल बाद यानि 2019 में कांग्रेस को 52 सीटें मिलीं है। कुछ दिनों बाद वो 49 साल के हो जाएंगे। पांच साल पहले उनकी हैसियत एक ताकतवर कांग्रेस उपाध्यक्ष की थी। वर्तमान में राहल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हैं, लेकिन उन्होंने हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था।
ये बात अलग है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने दो चरणों में बैठक कर साफ कर दिया है कि पार्टी अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी बने रहेंगे। बता दें कि जिस बैठक में यह निर्णय लिया गया है उसमें अधिकांश वहीं नेता शामिल थे जो जमीनी नेता नहीं हैं, लेकिन पार्टी पर उनकी पकड़ पहले की तरह है।
वंशवाद या परिवारवाद आरोप कितना सही
ये बात सही है कि विरोधी दलों के नेता कांग्रेस की इस स्थिति के लिए खुले तौर पर कांग्रेस में गांधी परिवार के नेतृत्व को जिम्मेदार मानते हैं। विरोधी पक्ष के नेता राहुल गांधी के अपरिपक्व राजनेता मानते हैं। दूसरी तरफ भाजपा के शीर्ष नेताओं का दावा है कि अब भारत वंशवाद और परिवारवाद के दौर से बाहर निकल चुका है।
लेकिन इसे पूरी तरह से सच नहीं माना जा सकता। ऐसा इसलिए कि परिवारवाद से भाजपा व अन्य क्षेत्रीय पार्टियां भी ग्रसित हैं। फिर परिवारवाद व वंशवाद केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की समस्या भर नहीं है। दक्षिण एशियाई देश सहित अन्य देशों की पार्टियां भी इस समस्या से ग्रस्त है।
तो जिम्मेदार किसे माना जाए
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कांग्रेस पार्टी का संविधान ही ऐसा है कि उसे चलाने के लिए जरूरी सभी शक्तियां कांग्रेस अध्यक्ष में निहित है। उसी से पार्टी की स्टाइल ऑफ वर्किंग और उसका दृष्टिकोण झलककर सबके सामने आता है। यहां तक कि पार्टी का तकदीर भी अध्यक्ष पद पर बैठे व्यक्ति से ही तय होता है।
अगर पंडित नेहरू को छोड़ दें तो कांग्रेस के इतिहास में इंदिरा गांधी का दौर सबसे ज्यादा सफल, आक्रामक और विवादित नेता वाला दौर रहा। इंदिरा गांधी को दुर्गा उपनाम से भी संबोधित किया गया।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में देश विज्ञान की राह पर तेजी से आगे बढ़ा लेकिन पार्टी के आंतरिक झंझावातों से वो पार नहीं पा सके। वीपी सिंह व अन्य नेताओं के नेतृत्व में बोफोर्स घोटाला सामने आया और वो सत्ता में वापसी नहीं कर सके।
जबकि 1984 में सहानुभूति लहर में राजीव गांधी 543 में से 400 से अधिक लोकसभा सीट पर जीत हासिल करने में कामयाब हुए थे, जो आजाद भारत में अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड है।
उसके बाद नरसिम्हा राव का दौर है सबसे अहम माना जाता है। पार्टी के आतंरिक झंझावातों से जूझते हुए उन्होंने भारत में आर्थिक सुधार, निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया। उन्हीं की सुधारवादी नीतियां आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती का आधार है।
उसके बाद पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया गांधी का दौर शुरू होता है। वह 19 वर्षो तक पार्टी अध्यक्ष पद पर बनीं रहीं। इस दौर में कांग्रेस के नेताओं ने उन्हीं बातों पर गौर फरमाया जिससे सोनिया गांधी नाराज न हो जाएं।
दो साल पहले पार्टी का अध्यक्ष बने राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी में राजीव गांधी की झलक दिखाई दी। राहुल गांधी 2004 में सक्रिय राजनीति में आते हैं। आज पार्टी के अध्यक्ष हैं। लोकसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी अब तक के सबसे बुरे दौर में है।
केसी वेणुगोपाल, ज्योतिरादित्य सिंधिया, प्रियंका गांधी , राहुल के थिंक टैंक और पूर्व नौकरशाह के राजू, डेटा एनालिस्अ प्रवीण चक्रवर्ती, सोशल मीडिया स्पेसलिस्ट निखिल अल्वा, टेक्नोक्रैट सैम पित्रोदा और पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू के भरोसे वो पार्टी की सत्ता में वापसी नहीं करा सके।
कहां चूक गए राहुल
बताया जाता है कि 2004 के बाद से अब तक राहुल गांधी संगठन के कामकाज का आधुनिकीकरण, लोकतंत्रीकरण नहीं कर सकते, संगठन में प्रभावी और अनुभवी व्यक्तियों की नियुक्ति और नई प्रतिभा का पता लगाने में असफल रहे। यही वजह है कि कांग्रेस अस्तित्व के संकट के दौर से गुजर रही है।
Updated on:
17 Jun 2019 09:54 pm
Published on:
17 Jun 2019 07:38 am
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